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आदर्शवाद
आदर्शवाद का अर्थ
आदर्शवाद अंग्रेजी शब्द idealism का पर्याय समझा जाता है। आइडियलिज्म दो शब्दों के योग से निर्मित है—(1) Idea' अर्थात् विचार तथा (2) 'ism' अर्थात् वाद शाब्दिक व्युत्पत्ति के अनुसार आदर्शवाद (Idealism) का अर्थ विचारवाद होता है। प्राचीन यूनानी दार्शनिक प्लेटो (Plato) आदर्शवादी विचारधारा में मन या विचार की ही चिरन्तन सत्ता स्वीकार करता था, अर्थात् इस विचारधारा के अनुयायीयों को मनवादी (mentalist) या आध्यात्मवादी (spiritualist) भी कहा जाता था। कालान्तर में उच्चारण की सुविधा के कारण मूल शब्द आइडियाज्म में 'ल' ध्वनि सम्मिलित हो गई और इस शब्द का रूपान्तर आइडियलिज्म (Idealism) हो गया जो हिन्दी के आदर्शवाद का परिचायक बना। आदर्शवाद का अर्थ, पाश्चात्य विचारकों के अनुसार, इस प्रकार है- "इस दर्शन के अन्तर्गत आत्मा और मन को लेकर मानव और प्रकृति के सम्बन्ध पर प्रकाश डाला जाता है और जीवन में चिन्तन को मुख्य स्थान दिया जाता है।“ आदर्शवादी प्राकृतिक, भौतिक तथा वैज्ञानिक तत्त्वों की अपेक्षा मानव तथा उसके विचारों, भावों तथा आदशों को अधिक महत्त्वपूर्ण मानते हैं और जीवन का लक्ष्य शाश्वत सत्यों, आदर्शो एवं मूल्यों की प्राप्ति को मानते हैं।
आदर्शवाद प्राचीनतम विचारधारा है। पाश्चात्य देशों में आदर्शवाद का प्रतिपादन प्रसिद्ध दार्शनिक सुकरात और प्लेटो ने किया। आधुनिक युग में आदर्शवादी दार्शनिकों से डेकार्ट (Descrates), स्पिनोजा , लाइबनीज, बर्कले , कान्ट, फिक्टे, हीगल (Hegel), शैलिंग, तथा जेन्टाइल (Gentile), प्रमुख हैं। शिक्षा में आदर्शवादी विचारधारा के प्रवर्तकों में कमेनियस (Comenius), पेस्टालॉजी (Pestalozzi) तथा फ्रोबेल (Froebel) मुख्य हैं। भारतीय आदर्शवादी दार्शनिकों में महात्मा गाँधी, स्वामी विवेकानन्द, महर्षि अरविन्द तथा रवीन्द्रनाथ टैगोर की गणना की जा सकती है।
परिभाषाएँ
आदर्शवाद के सन्दर्भ में कुछ दार्शनिकों द्वारा दी गई निम्नांकित परिभाषाएँ उल्लेखनीय हैं—
हैरोल्ड टाइटस — "आदर्शवाद यह स्वीकारता है कि वास्तविकता भौतिक वस्तुओं तथा शक्ति की अपेक्षा विचारों, मन या स्व में निहित है।"
हॉर्न — “आदर्शवादी शिक्षा दर्शन मानसिक जगत का मानव को अभिन्न अंग समझने की अनुभूति का विवरण है।"
रॉस — "आदर्शवाद के अनेक एवं विविध रूप हैं किन्तु इन सबका अन्तर्निहित सिद्धान्त है कि मस्तिष्क या आत्मा ही सम्पूर्ण जगत का मूल तत्त्व है तथा चिरन्तन सत्ता मानसिक है।
आदर्शवाद के प्रमुख सिद्धान्त
आदर्शवाद के प्रमुख सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-
1. सम्पूर्ण जगत् के दो रूप - आदर्शवाद के अनुसार सम्पूर्ण जगत् के केवल दो रूप हैं—(1) आध्यात्मिक जगत् तथा (2) भौतिक जगत् । आदर्शवादी भौतिक जगत् की तुलना में आध्यात्मिक जगत् को अधिक महत्त्व देते हैं। उनका विश्वास है कि आध्यात्मिक जगत् क तुलना में भौतिक जगत् केवल एक झलक मात्र है। लाइबनीज महोदय ने लिखा है- “भौतिक तत्त्वसार रूप में मानसिक या आध्यात्मिक है। इसी प्रकार फेचनर महोदय का कथन है- "विश्व का भौतिक पहलू सार्वभौमिक मन का बाह्य प्रकटीकरण है।"
2. वस्तु की अपेक्षा विचार का महत्त्व - आदर्शवादियों के अनुसार मन तथा आत्मा का ज्ञान केवल विचारों के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। इसलिए उन्होंने भौतिक जगत् के पदार्थों तथा वस्तुओं की तुलना में विचार एवं भाव जगत् को अधिक महत्त्वपूर्ण माना है। उनका पूर्ण विश्वास है कि वस्तु अथवा पदार्थ असत्य है। केवल विचार की सत्य हैं, सर्वव्यापी हैं तथा अपरिवर्तनशील हैं।
3. जड़ प्रकृति की अपेक्षा मनुष्य का महत्त्व -आदर्शवाद के अनुयायी जड़ प्रकृति की अपेक्षा मनुष्य को अधिक महत्त्व देते हैं। इसका कारण यह है कि मनुष्य में विचार तथा अनुभव करने की शक्ति होती है। क्योंकि आदर्शवादी अनुभव जगत को अधिक महत्त्व देते हैं, इसलिए अनुभवकर्ता स्वयं और भी अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है । रस्क (Rusk) ने मनुष्य के महत्त्व पर प्रकार डालते हुए लिखा है- "इस आध्यात्मिक तथा सांस्कृतिक वातावरण का निर्माण स्वयं मनुष्य ही किया है, अर्थात् समस्त नैतिक तथा आध्यात्मिक वातावरण समस्त मनुष्यों की रचनात्मक क्रियाओं का ने ही फल है।"
4. आध्यात्मिक सत्यों तथा मूल्यों में विश्वास – आदर्शवादियों के अनुसार जीवन का लक्ष्य आध्यात्मिक मूल्यों तथा सत्यों को प्राप्त करना है। ये मूल्य हैं‐ (1) सत्य (2) शिवं तथा (3) सुन्दरम्। आदर्शवादियों के अनुसार मूल्य अमर हैं। जो मनुष्य इन आध्यात्मिक मूल्यों को जान लेता है वह ईश्वर को प्राप्त कर लेता हैं। एस० रॉस का भी यही मत है- आदर्शवादियों के अनुसार सत्य, शिवं तथा सुन्दरम् निरपेक्ष गुण जिसमें से प्रत्येक अपनी आवश्यकता के कारण उपस्थित है तथा वह अपने आप में पूर्णतया वाहनीय है।
5. व्यक्तित्व के विकास का महत्त्व - आदर्शवादी दार्शनिक मनुष्यों के व्यक्तित्त्व को अधिक मूल्यवान समझते हैं। अतः वे व्यक्तित्व के विकास पर विशेष बल देते हैं। उनके अनुसार व्यक्तित्व के विकास का अर्थ आध्यात्मिक पूर्णता प्राप्त करना है। प्लेटो का मत है कि प्रत्येक व्यक्ति का एक आदर्श व्यक्तित्व होता है जिसको प्राप्त करने के लिए यह निरन्तर प्रयत्नशील रहता है।
6. भिन्नता में एकता के सिद्धान्त का समर्थन – आदर्शवादी एकता के सिद्धान्त का समर्थन करते हैं। उनका विश्वास है कि संसार की समस्त वस्तुओं में भिन्नता हुए भी एकता निहित है। इसी एकता को उन्होंने एक शक्ति, चेतना तत्त्व अथवा ईश्वर आदि विभिन्न नामों से पुकारा है।
7. सर्वोच्च ज्ञान आत्मा का ज्ञान है — आदर्शवादी दार्शनिक आत्मा के ज्ञान को ही सर्वोत्कृष्ट ज्ञान मानते हैं। उनके अनुसार यह ज्ञान इन्द्रियों के द्वारा संभव नहीं बल्कि तर्क के द्वारा होता है। तर्क से प्राप्त ज्ञान वास्तविक होता है और वह मनुष्य के द्वारा सरलता से ग्राह्य होता है।
आदर्शवाद के रूप
रॉस महोदय के अनुसार, आदर्शवाद के विविध रूप हैं।
इनमें से कुछ प्रमुख रूपों का वर्णन प्रकार है-
1. आत्मनिष्ठ आदर्शवाद - आदर्शवाद के इस रूप का प्रतिपादक एवं प्रमुख समर्थक आइरिश दार्शनिक बिशप बर्कले ( Bishop Berkely) था। उसने तत्कालीन भौतिकवाद के दुष्परिणामों को देखकर आत्मनिष्ठ आदर्शवाद का समर्थन किया। उसके विचार से वस्तु का अस्ति केवल मन के कारण है, अपने आप नहीं वह बाह्य जगत को केवल मन का प्रत्यक्षीकरण मानता है। आत्मनिष्ठ आदर्शवाद के अनुसार, संसार एक मानसिक जगत है जहाँ पर विचारों का सर्वोच्च स्थान है। सत्य वास्तविकता मन ही है।
2. प्रपंचात्मक आदर्शवाद — वर्कले के आत्मनिष्ठ आदर्शवाद को काण्ट (Kant) ने भी स्वीकार किया किन्तु उसने बर्कले के विपरीत वस्तु जगत का भी अस्तित्व स्वीकार किया है। इस कारण उसने प्रपंचात्मक आदर्शवाद का प्रतिपादन किया। काण्ट ने अन्तरात्मा अनुभव, कर्तव्य और नैतिक मूल्यों के जगत को वास्तविक माना है। उसका विचार है कि हम जो कुछ भी जानते हैं वह प्रपंचात्मक ज्ञान है इसके अतिरिक्त जो वास्तविक जगत है उसका हमको प्रत्यक्ष ज्ञान हो सकता है।
3. निरपेक्ष आदर्शवाद - आदर्शवाद की इस विचारधारा के प्रतिपादक हीगल (Hegal) और प्रमुख समर्थक फिक्टे (Fichte) हैं। इस विचारधारा को परम् आत्मा का आदर्शवाद भी कहा जाता है। फिक्टे आत्मा की निरपेक्ष सत्ता को स्वीकार करता है। उसके अनुसार, 'समस्त सत्ता आत्म की है। हीगल के अनुसार, ब्रह्माण्ड एक महान 'विचार प्रक्रिया' (Thought Process) है। उसकी धारणा थी कि ईश्वर विचार करने वाला है, उसके विचार का बाह्य और दृष्टिगोचर होने वाला रूप ही यह भौतिक जगत् है।
4. व्यक्तिगत आदर्शवाद—आदर्शवाद के इस रूप के पोषक जर्मन दार्शनिक रूडोल्फ यूकेन थे। व्यक्तिगत आदर्शवाद में उन्होंने प्रकृति एवं आत्मा को सक्रिय व्यक्तिगत अनुभव के द्वारा जोड़ने का प्रयास किया है। व्यक्तिगत आदर्शवाद व्यक्ति के नैतिक आदर्शों पर बल देता है यह व्यक्ति के विकास पर प्रभाव डालने वाले तत्त्वों पर भी विश्वास करता है। इसमें मानव प्राणी के जीवन को साधारण प्राणियों की अपेक्षा सर्वोच्च स्थान प्रदान किया गया है।
5. प्लेटो का आदर्शवाद — प्लेटो के आदर्शवाद में नैतिक मूल्यों को सर्वाधिक महत्त्व प्रदान किया गया है। यह सौन्दर्यपरक एवं नैतिक मूल्यों के दर्शन के रूप में कार्य करता है। प्लेटो के आदर्शवाद को स्पष्ट करते हुए रॉस ने लिखा है- "इसकी व्याख्या किये जाने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि संसार में निरपेक्ष सुन्दर, निरपेक्ष शिव (अच्छाई) और निरपेक्ष महानता इत्यादि का अस्तित्व है। इस जगत् में हम जिस वस्तु को वास्तव में अच्छी या सुंदर देखते हैं वह इस कारण अच्छी या सुंदर है क्योंकि उसमें निरपेक्ष अच्छाई या सुन्दरता की प्रकृति का कुछ अंश है।"
आदर्शवाद और शिक्षा
शिक्षा आदिकाल से ही विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं से प्रभावित होती चली आ रही है किन्तु इस पर सबसे अधिक प्रभाव आदर्शवाद का पड़ा है। शिक्षा के क्षेत्र में आदर्शवाद को प्रमुखता देने वालों में सर्वप्रथम प्लेटो, कामेनियस, पेस्टालॉजी और फ्रोबेल का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इन्होंने शिक्षा के अन्य अंगों की अपेक्षा उद्देश्यों पर अधिक बल दिया है और शिक्षा के निश्चित तथा उत्तम आदर्शों का निर्धारण किया है।
(1) आदर्शवाद और शिक्षा के उद्देश्य
आदर्शवाद के अनुसार शिक्षा के अधोलिखित उद्देश्य हैं-
1. मानव ईश्वर की सुन्दर एवं महानतम कृति है। इसलिये शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य मानव व्यक्तित्व का विकास या आत्म-साक्षात्कार है।
2. बालक को आध्यात्मिक मूल्यों एवं सत्यों की अनुभूति कराना।
3. बालक को सत्यं शिवं, सुन्दरम् के आदर्श वाक्य को अपने जीवन का आधार बनाना।
4. सांस्कृतिक घरोघर की रक्षा करना एवं उसमें योगदान देना।
5. बालक की बुद्धि एवं विवेक का विकास करना।
6. बालक के जीवन में पवित्रता को प्रमुख स्थान देना।
7. बालक की मूल प्रवृत्ति को आध्यात्मिक प्रवृत्ति में बदलना।
(2) आदर्शवाद और पाठ्यक्रम
प्राचीन आदर्शवादी प्लेटो के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य - सत्यम् शिवम् सुन्दरम् के आदशों को प्राप्त करना है। इसलिए पाठ्यक्रम में उन सब विषयों को स्थान दिया जाना चाहिए जो इन मूल्यों की ओर ले जाते हैं। मनुष्य की प्रमुख क्रियाएं बौद्धिक, कलात्मक और नैतिक हैं। बौद्धिक क्रियाओं के लिए पाठ्यक्रम में भाषा, साहित्य, इतिहास, भूगोल, गणित और विज्ञान को स्थान दिया जाना चाहिए। कलात्मक क्रियाओं के लिए कला और कविता का अध्ययन आवश्यक है। नैतिक क्रियाओं हेतु पाठ्यक्रम में धर्म, नीति-शास्त्र, अध्यात्म-शास्त्र जादि का अध्ययन सम्मिलित होना चाहिए।
(3) आदर्शवाद और शिक्षण विधियाँ
आदर्शवादियों ने शिक्षा क्षेत्र में अनेक शिक्षण विधियों का विकास किया। प्लेटो के गुरु सुकरात ने वाद-विवाद, व्याख्यान तथा प्रश्नोत्तर विधियों को अपनाया। प्लेटो प्रश्नोत्तर विधि के साथ-साथ संवाद-विधि का प्रयोग करते थे। प्लेटो के शिष्य अरस्तू ने आगमन तथा निगमन विधियों के प्रयोग पर बल दिया। आधुनिक आदर्शवादी विचारकों में हीगल ने तर्क विधि , पेस्टालॉजी ने अभ्यास विधि, हरबार्ट ने अनुदेशन निधि तथा फ्रोबेल ने सेन-विधि का विकास किया।
(4) आदर्शवाद व अनुशासन आदर्शवादी अनुशासन की स्थापना पर बहुत बल देते हैं। थॉमस और लैंग के शब्दों में "प्रकृतिवादियों का नारा 'स्वतन्त्रता है, जबकि आदर्शवादियों का नारा अनुशासन' है।"
लेकिन आदर्शवाद द्वारा समर्पित अनुशासन दमनात्मक न होकर प्रभावात्मक है। दूसरे शब्दों में आदर्शवादी बाह्य नियन्त्रण एवं शारीरिक दण्ड का विरोध करते हैं तथा पूर्णकाओं एवं के आधार पर ही अनुशासन की स्थापना चाहते हैं।
विश्वास है कि बालक अनुशासन में रहकर ही आत्मानुभूति को प्राप्त कर सकता है।
(5) आदर्शवाद और शिक्षक
आदर्शवाद शिक्षक को अत्यंत गौरवपूर्ण स्थान प्रदान करता है। शिक्षक की छत्रछाया में ही बालक का आध्यात्मिक विकास सम्भव है। फ्रोबेल ने बालक की उपमा एक पौधे से तथा शिक्षक की उपमा एक माली से देते हुए बताया कि जिस तरह माली पौधे को आवश्यकतानुसार सींचकर तथा काट-छांटकर सुव्यवस्थित रूप से पनपाता है जिससे वह एक सुन्दर एवं मनमोहक वृक्ष में ढल सके, उसी प्रकार शिक्षक का दायित्व भी बालक रूपी पौधे की उचित देखभाल करना है। शिक्षक के महत्व का वर्णन करते हुए रॉस लिखते हैं- एक प्रकृतिवादी केवल कांटों को देखकर ही सन्तुष्ट हो सकता है, परन्तु आदर्शवादी सुन्दर गुलाब का पुष्प देखना चाहता है। इसलिये शिक्षक अपने प्रयासों से बालक को, जो अपनी प्रकृति के नियमों के अनुसार विकसित होता है, उस उच्चता तक पहुंचाने में सहायता देता है, जहाँ तक वह स्वयं नहीं पहुँच सकता।"
(6) आदर्शवाद एवं बालक
आदर्शवाद के अनुसार बालक केवल शरीर ही नहीं है बल्कि वह शरीर से भी बहुत ऊपर है। वस्तुतः आदर्शवादी बालक को मन एवं शरीर दोनों मानते है जिसमें मन अधिक महत्त्वपूर्ण है। आदर्शवादी शिक्षा में आदशों व विचारों को सबसे अधिक महत्त्व देते हैं और यही कारण है कि वे शिक्षा को बालकेन्द्रित नहीं मानते हैं। उनके अनुसार बालक में उच्च आदशों को स्थापित करने के लिये उनमें अन्तर्दृष्टि या सूत्र का विकास करना ही शिक्षा का प्रमुख कर्त्तव्य होना चाहिये। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि प्रकृतिवाद जहाँ शिक्षा को बाल-केन्द्रित बनाने में विश्वास रखता है वहाँ आदर्शवाद बालक को इस योग्य बनाने में विश्वास रखता है कि वह सूझ-बूझ के बल पर कठिन से कठिन चुनौतियों का स्वयं सामना कर सकें।
आदर्शवाद का मूल्यांकन
आदर्शवाद का मूल्यांकन इसके गुण-दोषों के आधार पर निम्न प्रकार से किया जा सकता है
गुण
आदर्शवाद के प्रमुख गुण निम्न हैं-
1. आदर्शवादी शिक्षा के अन्तर्गत बालकों में 'सत्यम्, शिवम् और सुन्दरम् जैसे गुणों का विकास किया जाता है, इसके फलस्वरूप उनमें उत्कृष्ट चरित्र का निर्माण होता है।
2. आदर्शवादी शिक्षा इस अर्थ में अद्वितीय है कि इसमें शिक्षा के उद्देश्यों की विस्तृत व्याख्या के गई है।
3. आदर्शवादी शिक्षा में शिक्षक को गौरवपूर्ण स्थान दिया गया है। यह बालक और समाज दोनों के लिये मंगलमय है।
4. आदर्शवादी शिक्षा में बालक के व्यक्तित्व का आदर किया जाता है। यह शिक्षा उनकी रचना शक्तियों के विकास पर भी बल देती है।
5. यह शिक्षा आत्म-अनुशासन एवं आत्मनियन्त्रण के सिद्धान्तों को प्रतिपादित करती है। यह दमनात्मक अनुशासन का विरोध करता है।
6. आदर्शवादी दर्शन के परिणामस्वरूप विद्यालय एक सामाजिक संस्था बन गया है। इसीलिये व्यक्तिव एवं सामाजिक मूल्यों को समान महत्त्व दिया जाता है।
दोष —
आदर्शवाद में प्रमुख दोष निम्न हैं-
1. आदर्शवादी शिक्षा के उद्देश्य न केवल 'अमूर्त' हैं, वरन् इनका सम्बन्ध भी मात्र भविष्य से है। इस प्रकार यह शिक्षा सैद्धान्तिक अधिक है और व्यावहारिक कम ।
2. आदर्शवादी पाठ्यक्रम में आध्यात्मिक विषयों को ही प्रमुख स्थान दिया गया है जबकि आज के औद्योगिक युग में इनको आवश्यक नहीं समझा जाता ।
3. शिक्षण विधि के क्षेत्र में आदर्शवाद की कोई विशेष देन नहीं है। इसने कोई निश्चित शिक्षण विधि का प्रतिपादन नहीं किया है।
4. विचार और मन पर अधिक बल देने से इस शिक्षा में बौद्धिकता को आवश्यकता से अधिक महत्त्व दिया गया है।
5. यह शिक्षा शिक्षक को तो बहुत ऊँचा स्थान देती है, किन्तु इसमें बालक का स्थान गौण है।
6. आदर्शवाद हमें जीवन के अन्तिम ध्येय की ओर ले जाता है जिसकी हमें तात्कालिक आवश्यकता नहीं है। इस समय तो हमारी आवश्यकतायें रोटी, कपड़ा और मकान से ही मुख्य रूप से सम्बन्धित हैं।
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