October 10, 2023

प्रबन्ध का अर्थ एवं परिभाषा, विशेषताएँ, प्रकृति| शैक्षिक प्रबन्ध का अर्थ, शैक्षिक प्रबन्ध की अवधारणा, परिभाषाएँ, सामान्य विशेषताएँ

 प्रबन्ध का अर्थ एवं परिभाषा

प्रबन्ध एक व्यापक एवं जटिल शब्द है। यह इतना व्यापक है कि इसे आधुनिक औद्योगिक जगत में कई अर्थों में प्रयोग किया जाता है। प्रबन्ध की विचारधारा इतनी जटिल है कि, प्रायः विद्वान इसे अपनी विशिष्ट आवश्यकताओं और उद्देश्य के संदर्भ में काम चलाऊ आधार पर परिभाषित करते हैं। विभिन्न विद्वानों एवं लेखकों ने प्रबन्ध के विभिन्न पहलुओं को ध्यान में रखते हुए उसकी परिभाषा को अपने-अपने तरीके से स्पष्ट करने का प्रयास किया है। इसीलिए इसको कोई सर्वग्राह्म तथा सर्वमान्य परिभाषा आज तक नहीं बन पाई है। सकीर्ण अर्थ में, सर चार्ल्स रेनोल्ड के अनुसार, प्रबन्ध अन्य व्यक्तियों से कार्य कराने की युक्ति है। इस दृष्टि से प्रबन्ध का आशय समुदाय के एक अधिकरण द्वारा अन्य व्यक्तियों से कार्य करवाने से लिया गया है।


विस्तृत अर्थ में, जार्ज आर. टेरी के अनुसार, प्रबन्ध से आशय उस कला तथा विज्ञान से लिया गया है, जो कार्यकुशल तरीके से एक व्यवसाय के उद्देश्यों को प्राप्ति में योगदान करता है। इस अर्थ में, एक संस्था तथा उसमें कार्य करने वाले कर्मचारियों के संगठन, निर्देशन, नेतृत्व एवं नियन्त्रण के कार्यों को प्रबन्ध को संज्ञा दी गई है है


इसके अतिरिक्त कुछ व्यक्ति प्रबन्ध को सामाजिक प्रयासों को व्यवस्था मानते हैं। इनका कहना है कि जब संस्था में एक से अधिक व्यक्ति कार्य करते हैं तभी उनके कार्यों का नियोजन, संगठन, समन्वय एवं नियन्त्रण करना आवश्यक होता है ताकि संस्था अपने लक्ष्यों को प्राप्त कर सके। इस प्रकार सामान्य लक्ष्यों को प्राप्ति हेतु सामूहिक प्रयासों का नियोजन संगठन, समन्वय, नियन्त्रण एवं निर्देशन हो प्रबन्ध कहलाता है।


प्रबन्ध की कतिपय प्रमुख परिभाषाएं निम्नलिखित हैं-


प्रो. आर.सी. डेविस के शब्दों में – “प्रबन्ध कार्यकारी नेतृत्व का कार्य है, यह संगठन के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए इसकी क्रियाओं के आयोजन, संगठन तथा नियन्त्रण का काम है।"


ई. एफ. एल. बेच के अनुसार –"प्रबन्ध एक सामाजिक प्रक्रिया है जिसके अन्तर्गत किसी उपक्रम के निर्धारित उद्देश्य अथवा कार्य को पूरा करने के हेतु क्रियाओं का प्रभावपूर्ण आयोजन एवं नियमन करने का उत्तरदायित्व सन्निहित है।""


जी. ई. मिलवर्ड के अनुसार – "प्रबन्ध प्रक्रिया और ऐजेन्सी है जिसके माध्यम से नीतियों का क्रियान्वयन नियोजन, और पर्यवेक्षण किया जाता है।"


जॉर्ज आर. टैरी ने प्रबन्ध परिभाषित करते हुए लिखा है – कि "प्रबन्ध एक विशिष्ट प्रक्रिया है, जिसमें नियोजन, संगठन, उत्प्रेरण एवं नियन्त्रण सम्मिलित हैं। इनमें से प्रत्येक में कला एवं विज्ञान दोनों का प्रयोग करते हुए पूर्व निश्चित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अनुवर्तन किया जाता है।"


सी. डब्ल्यू. विलसन के अनुसार –"प्रबन्ध एक निश्चित लक्ष्य की प्राप्ति के लिए मानवीय शक्तियों के प्रयोग एवं निर्देशन की प्रक्रिया है।"

जी. ई. मेकफारलैण्ड के अनुसार –"प्रबन्ध वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा प्रबन्धक उद्देश्यपूर्ण संगठनों का व्यवस्थित, संतुलित एवं सहकारितापूर्ण मानवीय प्रयासों के द्वारा सृजन करते हैं, निर्देशन करते हैं, बनाए रखते हैं तथा संचालन करते हैं।" 

पीटर एफ. ड्रकर के शब्दों में – "प्रबन्ध एक बहुउद्देशीय तत्व है जो एक व्यवसाय का प्रबन्ध करता है, प्रबंधकों का प्रबन्ध करता है तथा कार्य करने वालों का प्रबन्ध करता है।"


प्रो. जॉन एफ. मी. के मतानुसार – "प्रबन्ध से आशय न्यूनतम प्रयासों द्वारा अधिकतम परिणाम प्राप्त करने की कला से है जिससे कि नियोक्ता एवं नियोक्ति दोनों के लिए अधिकतम समृद्धि एवं खुशहाली तथा जनता के लिए सर्वश्रेष्ठ सेवा संभव हो सके।"


प्रबन्धन की विशेषताएँ 

(i) प्रबन्धन व्यक्तियों से कार्य कराने की कला तथा विज्ञान है।

 (ii) इसमें व्यक्तियों तथा कार्यकर्त्ताओं को समूह में संगठित रूप में कार्य कराया जाता है। सामूहिक क्रियाओं को बढ़ा दिया जाता है।

(iii) प्रबन्धन को कार्य कराने की ज्ञान की एक शाखा अथवा अनुशासन माना जाता है।

(iv) प्रबन्धन में मानवीय तथा भौतिक स्रोतों में समन्वय स्थापित करने की प्रक्रिया है।

(v) प्रबन्धन पर्यावरण को बनाये रखने तथा उसे बनाने का कार्य करता है। (vi) प्रबन्धन को मानव विकास की प्रक्रिया भी मानते हैं।

(vii) प्रबन्धन में निम्नांकित प्रक्रियाएँ सम्मिलित होती हैं—


(a) नियोजन की प्रक्रिया

(b) उद्देश्यों का प्रतिपादन 

(c) व्यवस्था करना 

(d) निर्देशन करना 

(e) नियुक्तियाँ करना 

(f) सम्पादन तथा समन्वय करना 

(g) मूल्यांकन तथा नियन्त्रण करना 

(h) कार्यकर्त्ताओं को प्रोत्साहित करना |इन सभी क्रियाओं तथा प्रक्रियाओं को उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए प्रबन्धन में सम्पादित करते हैं।


प्रबन्धन की प्रकृति 


प्रबन्धन की प्रकृति बदलती रहती है। पहले 'प्रबन्धन' तथा 'स्वामित्व' को एक ही अर्थ में प्रयुक्त करते थे परन्तु आज तकनीकी एवं औद्योगिक युग में इनके अर्थ एवं प्रकृति भिन्न हैं। प्रबन्धन की प्रकृति इस प्रकार है—


(i) प्रबन्धन एक कला तथा विज्ञान है और एक अध्ययन का क्षेत्र भी है।


(ii) प्रबन्धन एक विकास का साधन तथा अधिकार तंत्र भी है।


(iii) प्रबन्धन व्यक्तियों से कार्य कराने की सार्वभौमिक प्रक्रिया है।


(iv) प्रबन्धन व्यक्तियों के संगठित समूह से कार्य कराने का एक तंत्र है।


(v) प्रबन्धन एक व्यवसाय/ पेशा है, इसकी अपनी आचार-संहिता है।


(vi) प्रबन्धन पर्यावरण की गुणवत्ता बनाये रखने का कार्य है।


शैक्षिक प्रबन्ध का अर्थ


आज वैज्ञानिक युग में प्रबन्ध शब्द का प्रयोग प्रत्येक क्षेत्र में हो रहा है और शिक्षा के क्षेत्र में तो प्रबन्ध ने क्रांतिकारी परिवर्तन किया है।

शैक्षिक-प्रबन्ध दो शब्दों-संयुक्त है-शैक्षिक (शिक्षा) एक प्रबन्ध (व्यवस्था) अतः शैक्षिक प्रबन्ध का अर्थ हुआ शिक्षा प्रक्रिया की व्यवस्था का प्रबन्ध करना। प्रबन्ध में यह देखा जाता है शिक्षा व्यवस्था से संबंधित कार्य कैसे, कब एवं किस प्रकार से किए जाते हैं। प्रबन्ध में योजना बनाने, निर्णय लेने,व्यवस्था करने कर्मचारियों का चयन करने, उनको प्रशिक्षण देने, आवश्यक साधनों का ज्ञान करवाने नियोजन करने प्रेरणा देने, संगठनात्मक कार्य करने, कार्य का मूल्यांकन करने एवं सुधार करने आदि सभी संबंधित पक्षों का वर्णन होता है। 

"प्रबन्ध यह जानने की कला है कि क्या करना है तथा उसे करने का सर्वोत्तम तरीका क्या है?" एम. डबलू सर


शिक्षण एक व्यवसाय है इसमें शिक्षक अपने ज्ञान तथा कौशल को सेवाएं धन के बदले छात्रों को देता है। इस प्रक्रिया को सफलता उत्तम प्रबन्ध पर निर्भर करती है। विद्यालयी प्रबन्ध में मानव (शिक्षक छात्र) मशीन (विद्यालयी साधन उपकरण) माल (शैक्षिक प्रक्रिया) निष्पत्ति, मुद्रा बाजार (शुल्क) अर्थव्यवस्था तथा मानव शक्ति है।


नियोजक तथा संगठन (प्रबन्धक, प्रधानाचार्य, शिक्षक, छात्र, कर्मचारी, अभिभावक इन सबको गतिशील बनाए रखता है। शैक्षिक प्रबन्ध के प्राचीन एवं आधुनिक अर्थ को समझने के लिए दोनों कालों को शिक्षण व्यवस्थाओं को समझना आवश्यक है।


वैदिक काल में विद्यार्थी गुरुकुलों व आश्रमों में गुरुओं से शिक्षा पाठ करते थे उस समय के शिक्षक वेतनभोगी नहीं होते थे क्योंकि उनका लक्ष्य सेवा एवं स्थान का था। अ उस समय की शिक्षा-व्यवस्था एवं संस्था को शिक्षक व्यक्तिगत रूप से शिक्षा प्राप्त कर स्वयं चलाते थे।


बौद्ध काल में शिक्षा के केन्द्रों की स्थापना हुई तथा शिक्षण संस्थाओं की व्यवस्था का सारा व्यय राजाओं द्वारा किया जाता था।


मध्यकाल में शिक्षण संस्थाओं का स्वरूप धार्मिक बना रहा और इस समय शिक्षण संस्थाओं की व्यवस्था स्थानीय समुदाय एवं धार्मिक संस्थाएं तथा राजाओं के हाथ में थ समय नियम, सिद्धान्त, व्यवस्था एवं शिक्षण-प्रक्रिया उस समय के राजाओं के पति के अनुसार हो बनाते थे।


आधुनिक समय में शिक्षण संस्थाओं का बड़ी तेजी से हुआ है और शिक्षा के क्षेत्र में शैक्षिक प्रबन्ध की संकल्पना शुरू हुई। शैक्षिक शिक्षा के क्षेत्र में वांछित शासकीय लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए की जाने वाली प्रकिया है


शैक्षिक प्रबन्ध की अवधारणा


मानव द्वारा की जाने वाली प्रत्येक क्रिया किसी न किसी प्रक्रिया द्वारा सम्पन्न होती है। यह प्रक्रिया इतनी व्यवस्थित होती है कि यदि इसमें किसी प्रकार का परिवर्तन किया जाए। तो उसके परिणामों में परिवर्तन आ जाता है।


वर्तमान शिक्षा की अवधारणा में दो प्रकार के परिवर्तन हुए हैं- (1) शिक्षा, मानव विकास की सशक्त प्रक्रिया के साथ-साथ राष्ट्र विकास एवं जनशक्ति नियोजन का आधार बन गई है। 

(2) यह एक मानवीय व्यवसाय के रूप में विकसित हो रही है। यह व्यवसाय अन्य व्यवसायों से भिन्न है। इसमें शिक्षक, शिक्षा के द्वारा मानव विकास के लिए किए गए श्रम का मूल्य लेता है। यह व्यवसाय, एक मिशन (सेवा कार्य) के रूप में है जिसका सम्पूर्ण लाभ समाज तथा राष्ट्र को मिलता है। शिक्षण व्यवसाय में प्रबन्ध का विशेष महत्व है।


हेने के अनुसार शिक्षा एक व्यवसाय है इसमें शिक्षक अपने ज्ञान तथा कौशल की सेवाएं, धन के बदले छात्रों को देता है। छात्र, शिक्षक द्वारा प्रदान किए गए ज्ञान तथा कौशल का उपयोग करके अपनी क्षमताओं का विकास करते हैं। शिक्षा एक प्रबन्ध है शिक्षा यद्यपि  जीवनपर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया की सफलता उत्तम प्रबन्ध पर निर्भर करती है।


शिक्षा के क्षेत्र में की गई व्यवस्था ही शैक्षिक प्रबन्ध है शैक्षिक प्रबन्ध एक विशेष क्रिया है। मानव समूह तथा संस्थाओं के संचालन के लिए अर्थात् विद्यालय के कर्मियों तथा विद्यालयी संस्था के संचालन के लिए शैक्षिक प्रबन्ध का होना अत्यन्त आवश्यक है। उद्योग और व्यापार के क्षेत्र में व्यवस्था की यह प्रक्रिया "प्रबन्ध" कहलाती है और शिक्षा के क्षेत्र में यह प्रक्रिया “ प्रशासन" कहलाती है। प्रशासन में व्यक्ति अपने पद के अनुसार अपनी भूमिका का निर्वाह करता है। प्रचलित अवस्था में "प्रबन्ध" शब्द उद्योग तथा व्यवसाय के क्षेत्र में उपयोग किया जाता है। 

में शिक्षा के केन्द्रों की स्थापना हुई तथा शिक्षण संस्थाओं की व्यवस्था का सारा व्यय राजाओं द्वारा किया जाता था।


मध्यकाल में शिक्षण संस्थाओं का स्वरूप धार्मिक बना रहा और इस समय शिक्षण संस्थाओं की व्यवस्था स्थानीय समुदाय एवं धार्मिक संस्थाएं तथा राजाओं के हाथ में थ समय नियम, सिद्धान्त, व्यवस्था एवं शिक्षण-प्रक्रिया उस समय के राजाओं के पति के अनुसार हो बनाते थे।


आधुनिक समय में शिक्षण संस्थाओं का बड़ी तेजी से हुआ है और शिक्षा के क्षेत्र में शैक्षिक प्रबन्ध की संकल्पना शुरू हुई। शैक्षिक शिक्षा के क्षेत्र में वांछित शासकीय लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए की जाने वाली प्रकिया है 

शैक्षिक प्रबन्धन की परिभाषाएँ

शैक्षिक प्रबन्ध के विषय में अनेक विद्वानों ने अपनी-अपनी राय दी है, कुछ विद्वानों के कथनों को यहां प्रस्तुत किया जा रहा है-


गैंड तथा शर्मा  - " शैक्षिक व्यवस्थापन एक बहुत व्यापक अर्थ वाला विषय है। यद्यपि विद्यालय व्यवस्था शैक्षिक व्यवस्थापन के अन्तर्गत ही एक विषय है परन्तु आमतौर पर शैक्षिक व्यवस्थापन से हम शिक्षा की नीतियों का निर्धारण, उनका संचालन और उनका मूल्यांकन आदि विषयों का ही बोध पाते हैं। शिक्षा व्यवस्थापन के अन्तर्गत शिक्षा की योजना बनाना, उसके लिए उचित व्यवस्था करना, उसका संचालन करना, नीति और साधनों का समायोजन करना तथा नियंत्रण एवं मूल्यांकन करना ये पांच तत्व आते हैं। यद्यपि ये पांचों तत्व एक दूसरे से बंधे हुए हैं तथापि उनका कुछ अंश तक पृथक-पृथक क्षेत्र है।"


कोठारी शिक्षा आयोग (1964-66) के अनुसार – "भारत का भविष्य उसकी कक्षाओं के निर्मित हो रहा है।" उक्त शब्दों में गणतंत्र के लिए योग्य नागरिक तैयार करने में शिक्षण संस्थाओं के कुशल प्रबन्ध का महत्व स्वीकार किया है जिसके द्वारा विद्यालयों में अनुकूल वातावरण निर्मित कर 'शैक्षिक उद्देश्यों की सम्प्राति' करने में सहायता मिलती है। किसी विद्यालय की सफलता उसके 'प्रबन्ध' और 'व्यवस्था' पर निर्भर है। अतः लाभकारी एवं प्रभावपूर्ण शिक्षा के लिए 'विद्यालय प्रबन्ध' या संगठन अपना आवश्यक है।"


किम्बाल एवं किम्बाल— "प्रबन्धन उस कला को कहते हैं जिसके द्वारा किसी उद्योग में मनुष्य में और माल को नियन्त्रित करने के लिये चालू आर्थिक सिद्धान्त को प्रयोग में लाया जाता है।"


कुन्दज- 'औपचारिक समूहों में संगठित लोगों से काम कराने की कला का नाम से है।"


शिक्षा प्रबन्धन की सामान्य विशेषताए


शैक्षिक प्रबन्ध की विशेषताएं या आयाम इस प्रकार हैं-


(1 ) नियोजन व्यवस्था- शैक्षिक प्रबन्ध की सबसे प्रमुख विशेषता नियोजित व्यवस्था है। विद्यालय में सम्पूर्ण व्यवस्था पूर्ण नियोजित होती है अन्य शब्दों में सारे कार्य क्रमबद्ध एवं नियोजित तरीके से किए जाते हैं। यह शैक्षिक प्रबन्ध की ही नहीं बल्कि सभी प्रबन्धों की महत्वपूर्ण विशेषता मानी जाती है।


(2) शैक्षिक प्रबन्ध, शिक्षा के विभिन्न साधनों में समन्वय करता है तथा एकीकरण के द्वारा वह शिक्षा की प्रक्रिया को सफल बनाता है। इसमें छात्र-छात्राएं, शिक्षकों आदि से संबंधित व्यवस्थाएं होती हैं।


(3) शैक्षिक प्रबन्ध एक समूहवाचक संज्ञा है - इसमें एक व्यक्ति या संस्था निहित नहीं होते हैं। शैक्षिक प्रबन्ध में समूह निहित होते हैं, जो अपनी-अपनी भूमिका का निर्वाह करते हैं। प्रबन्ध एक जटिल अर्थ वाली प्रक्रिया है, इसका सम्बन्ध अधिकारियों से है। यह एक विज्ञान है और साथ ही एक प्रक्रिया भी है, प्रबन्ध में अधीनस्थों से काम कराया जाता है।


(4) प्रबन्ध एक सामाजिक क्रिया है-लारेन्स एप्पले के अनुसार-प्रबन्ध, व्यक्तियों का विकास है न कि वस्तुओं का निर्देशन, प्रबन्ध वास्तव में कर्मचारी प्रशासन हैं, विद्यालयों में इसीलिए अनेक व्यक्ति अनेक प्रकार के कार्य करते हैं जो विद्यालय में शैक्षिक वातावरण का सृजन करते हैं।


(5) शैक्षिक प्रबन्ध एक अदृश्य कौशल है यह कोई दिखाई देने वाला तत्व नहीं है। यह तो ऐसा कौशल है, जिसे उसके परिणाम से जाना जाता है। किसी विद्यालय में लोग अपने बच्चों को प्रवेश दिलाने के लिए इसलिए लालायित रहते हैं कि वहाँ का परिणाम उत्तम रहता है। परिणाम का उत्तम रहना, उत्तम प्रबन्ध कौशल पर निर्भर करता है ।

(6)  मूलरूप से किया है-शैक्षिक प्रबन्ध मूलरूप से यह क्रिया है, जो कार्य को सम्पादन कराती है। इसका सम्बन्ध मानवीय सम्बन्ध, भौतिक संसाधन तथा पति से होता है।


(7) एक सार्वभौमिक क्रिया है- शैक्षिक प्रबन्ध किसी भी कार्य को दिशा देने में सदा सहयोगी रहा है और यह सार्वभौम है। नियोजन, संगठन, नियंत्रण तथा निर्देशन आदि सभी सार्वभौमिक प्रकृति के कार्य है। प्रबन्ध का कार्य प्रबन्धक को करना पड़ता है।


(ङ) प्रबन्ध एक उद्देश्यपूर्ण क्रिया है-शैक्षिक प्रबन्ध किसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए किया जाता है। बच्चों को शिक्षा देने के उद्देश्यों से स्थान, सामान, कर्मचारियों, उपकरणों की व्यवस्था की जाती है। इनका सबका (सबका उद्देश्य लक्ष्य प्राप्त करना है।


( 9 ) प्रबन्ध का दीचि काम कराना है- यह स्वयं कार्य न करके कार्य कराता है। प्रधानाचार्य स्वयं बहुत कम पढ़ाते हैं किन्तु प्रत्येक शिक्षक से कार्य लेते हैं, और गैर- शैक्षिक कर्मचारियों द्वारा शैक्षिक सुविधाएं जुटाने एवं वातावरण का निर्माण कराने में सहयोग लेते हैं।


(10) अनवरत् चलने वाली प्रक्रिया- इसकी एक अन्य विशेषता यह है कि यह अनवरत रूप से चलती रहती है। इसमें योजना, निर्णय करने, संगठन, निर्देशन, समन्वय आदि के बारे में निरन्तर कार्य किए जाते रहते हैं। उपर्युक्त विशेषताओं के अतिरिक्त शैक्षिक प्रबन्ध की अन्य विशेषताएं इस प्रकार हैं-


(12) इसका सम्बन्ध प्रबंधक या प्रशासक की नीतियों को क्रियान्वित करने से है। यह संगठन का पृथक अंग है। इसमें वे सभी व्यक्ति तथा कार्य आते हैं जो उद्देश्य प्राप्ति के लिए क्रियाशील होते हैं।


इस प्रकार हम कह सकते हैं कि प्रबंध वह शक्ति है, जो संगठन में उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए नेतृत्व प्रदान करती है तथा सभी का मार्गदर्शन करती है।

2 comments:

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